मेरी एक और ग़ज़ल
समंदर
समंदर, झील से, गहरा रहा हूँ
कभी जंगल कभी सहरा रहा हूँ
समन्दर, झील से, गहरा रहा हूँ...
मुझे है आज भी तेरा~भरोशा
मैं' अपने वादे' पे ठहरा रहा हूँ
कभी नागिन सी लहराती थी जिसपे
मैं तेरी बीन का लहरा रहा हूँ
नहीं नफरत सही इतनी भी हमसे
कभी हर ख़ाब का चेहरा रहा हूँ
मिटाना भी नही मुमकिन हमे यूं
मैं तेरी रूह तक गहरा रहा हूँ
कभी तो याद आती होगी’ मेरी
मैं ‘सावन’ इश्क का सेहरा रहा हूँ
सावन चौहान कारोली -एक गजलकार
१६-१२-१०१८
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