मंगलवार, 16 जुलाई 2019

Ho gaya paisa bada insan se

हो गया पैसा बड़ा इंसान से

रहजनों से खामखा टकरा गए
रहबरों से मात "सावन" खा गए

ये शज़र जो था निशानी इश्क़ की
तुम गये पत्ते तलक मुरझा गए

कौन जाने किस ज़हन में क्या छुपा
फूल भँवरों के अधर झुलसा गए

दी जगह दिल में जिसे अपना समझ
वो हमे अंदर तलक दहला गए
सोचता हूँ क्या लिखूँ नेताओं पर
जानवर तक का जो चारा खा गए

हो गया पैसा बड़ा इंसान से
मुफ्लशी के दिन हमे समझा गए

वोट पाने की गजब की चाल है
वो दलित घर आज खाना खा गए

बात करते है बड़ी तालीम की
जो पढ़ाना था उसे दफना गए

दुश्मनों से था परेशां खामखा
मात जयचंदों से सावन खा गए

हर गली रोशन हुई इस बार यूँ
यूँ लगा श्रीराम वापस आ गए

आंशुओं में कट रही है आखिरी
कैसे दिन माता पिता के आ गए

सावन चौहान कारोली- गजलकर


2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुंदर लिखा है पर त्रुटियाँ बहुत हैं उन्हें एडिट कर के सही कर लीजिएगा।
    ग़ज़ल,ख़ामख़ाँ,शज़र,मुफ़लिसी,आँसुओं ऐसे लिखिए।

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  2. शुक्रिया मोनिका जी दरअसल keyboard मिस्टेक हो रही है कुछ त्रुटियां भी है सुधार करने का प्रयास करूंगा बहुत-बहुत शुक्रिया आपकी सराहनीय प्रतिक्रिया और मार्गदर्शन के लिए ऐसे ही स्नेह बनाए रखें

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