खिंच गई दिवार कैसी एक आँगन के दरमियां,
किसने ये साजिस रची घर का बंटवारा हो ग़ाया ।
रात-दिन इंसानीयत की देता था तालीम जो ,
मैंने सुना है वो मास्टर इंसानियत डुबो गया ।
पर्वत से टकरा के, उसको चोट तो लगी होगी,
रोया होगा वो बादल, जो धरती को भिगो गया।
पी गया वो जहर के से घूंट, ना शिकवा किया,
दिल में थी उसके समाई, जख्म खा के सो गया ।
किसको कहूं बेवफा, मैं प्यार करता हूँ उसे,
मैं तो उसी का हूँ, चाहें वो किसी का हो गया ।
जिसके लियें छोड़ दिया , ये जहां हमने सावन ,
बेमुरव्वत चैन से ,मुझको भुला के सो गया ।
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“सावन चौहान कारौली”- एक कलमकार
भिवाड़ी अलवर राजस्थान
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